Sunday, May 24, 2020

नियति

समुन्दर किनारे गिरी एक बोतल कांच की
जो किसी शाम में कहकहों के बीच थी
आहिस्ता से थामते थे उसे हाँथों में
उसकी एक अहमियत थी, वो क़ीमती थी।

समुन्दर किनारे गिरी एक बोतल कांच की
अब बस ठोकरों के लगने पे खिसकती है
ढलती शाम में सूरज की विदाई करती
आज अंधेरे में अकेली पड़ी है।

सोचती है अग़र मैं दब के टूट जाऊँगी
तो चुभ जाउंगी किसी अनजान पैरों में
जो ना टूटी और यूँ ही रही तो
गीली रेत में दब के कहीं खो जाउंगी।

इसी कशमकश में थी की तभी
दो नन्हे हाथों ने उसको थाम लिया
उठाया और देखा गौर से उसको
फिर अपने झोले मे डाल लिया।